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“कुछ कहते हैं पत्थर उसको, कुछ उसकी तकदीर पर हैं रोते..
पर जब वो खुद पर रोती होगी, कुछ तकलीफ तो होगी…”
दिवाली बीत गई..और इसके साथ ही एक और मौका जो खुशी का होता है दुनिया के लिए…जाने कितनों के गमों को गुलजार कर गई होगी. जागरण जंक्शन पर ही तमन्ना जी का आर्टिकल पढा…पढ़ा और एक पल को सोच में पड़ गई..लगा गम की जिस दरिया में मैं गोते मार रही हूं उससे बड़ा गमों का समंदर भी दुनिया में है…..और हर पल जाने कितनी जानें इससे पार पाने की जुगत में लगी होती हैं. पर शायद मैं अपने गम से ही पार नहीं पा सकी थी…शायद इसीलिए इस दरिया से बाहर के समंदर को जान नहीं सकी अब तक…या शायद सभी अपनी ही जान के बोझ तले दबे हैं कि और कुछ देख सकने के वे काबिल ही नहीं..शायद मैं भी उसी भीड़ का एक हिस्सा हूं..शायद मेरा वजूद भी अपनी ही जान के बोझ तले दबा है. क्या सचमुच ऐसा ही है..तो क्या मैं अब तक इस सच्चाई से अनजान थी या देखना नहीं चाहती थी मैं इस सच को?…मानना नहीं चाहती थी इस हकीकत के पीछे की कड़वी सच्चाई को?..अपनी ही जान का बोझ!! कितना अजीब है ये सुनना…
अकेलापन दोस्तों जिंदगी की सबसे बड़ी सजा है. ऐसा नहीं था कि जिंदगी को दूसरे नजरिए से देखा नहीं मैंने. “गमगीन सायों तले पलती जिंदगी में ऐसा कोई तो मोड़ होगा जो खुशी की तरफ ले जाएगा…”, कई बार ऐसा सोचा. कई बार इसी उम्मीद की छाया में आगे बढ़ने की कोशिश की…लेकिन गमों की स्याही जहां कभी खत्म होती नहीं जान पड़ती थी, खुशियों की सरहदें बस दो कदम चलते ही सामने होती थीं. कई बार चाहा तोड़ दूं उन सरहदों को…देखूं क्या है उस पार..पर डर गई हर बार शायद… शायद डरती थी कि कहीं उस पार हमेशा के लिए गमगीन कर देनेवाला कोई मंजर न मिल जाए…कि मैं जो तिनका-तिनका जोड़कर….फिर भी जी पाने की कोशिश कर रही हूं…उस पार कहीं कोई भयानक आंधी न हो जो मुझे ताश के पत्तों की तरह बिखेर जाए…
किसी एडवरटाइजमेंट की टैगलाइन सुनी थी – “डर के आगे जीत है”…पर मैं अपने इस डर को जीत नहीं सकी. आज भी खड़ी हूं उन्हीं सरहदों पर जहां खुशी का हर मंज़र जंदगी से खत्म हो जाने के जैसे इशारे कर रहा हो. अपने हर डर को जीतना चाहती हूं.. सरहदों से पार हर तूफानी मंज़र को ललकारना चाहती हूं…पर उस जीत से पहले खुद को इस ललकार के लिए ही जीत नहीं पा रही….और हारते हुए खुद को देख नहीं सकती. अजीब सी कश्मकश है…अकेलेपन का अंधेरा साया जैसे लिपटा हो लिबास बनकर चारों ओर….कोरों से आंसू के दो बूंद जाने कैसे टपक पड़े…और किसी की दो लाइनें याद आ गई हैं..”कुछ कहते हैं उसको पत्थर, कुछ उसकी तकदीर पर हैं रोते..पर जब वो खुद पर रोती होगी, कुछ तकलीफ तो होती होगी…”.
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