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जागती हुई रातों में बेबाक सी किसी नजर ने मुझे जगा दिया. आंख खुली तो बस अंधेरा था..तन्हाई थी और मैं…अकेली बिलकुल तन्हां…कई ऐसी रातों में खाली पड़ी बिस्तर पर सोचती हूं आखिर वो कौन सी नजर है जो मेरा पीछा नहीं छोड़ रही. बहुत सोचा…कब से सोच रही लेकिन किसी नतीजे पर अब तक नहीं पहुंच सकी हूं. शायद वह नजर उन यादों की है जिसमें एक अकेली लड़की हर किसी के लिए शबाब होती है….शायद वह नजर राह चलते उन मजनूं दीवानों की है जिनके लिए हर राह चलती लड़की उनकी बिस्तर की हमसफर होनी चाहिए. शायद वह नजर उन बड़े आलीशान बंगलों में भी छोटे से आवारा दिल के साथ रहने वाले शरीफजादों की है जो रात होते ही अपनी शराफत की ओढ़नी उतारकर क्लबों और होटलों में रंगीन मिजाज बेखौफ हमबिस्तर होने का शौक रखने वालियों की खोज में लार टपकाते घूमा करते हैं…
शायद आपने गौर किया हो कि मैंने मर्द जाति के लिए शर्म का सबब समझी जाने वाली ‘ओढ़नी’ का जिक्र किया है. हां, मैंने ओढ़नी का जिक्र किया है क्योंकि यह ओढ़नी हम औरतों की इज्जत के साथ जुड़ी है और मर्द इस इज्जत को अपनी लोलुप निगाहों से पल भर में तार-तार करने में जरा सी चूक शायद ही करते हों.
आज 8 महीनों बाद जागरण जंक्शन पर आई हूं. 8 महीने कोई बहुत लंबा वक्त नहीं फिर भी ऐसा लग रहा है जैसे एक अर्सा गुजर गया हो. बहुत बार सोचा…’लिखूं…लिखकर अपने दिल का दर्द हल्का करूं’…लेकिन कई बार दर्द इतना भारी होता है कि शब्द उसे बयां करने को कम पड़ जाते हैं. जिंदगी को शायद इसीलिए दुरूह कहते हैं. दर्द की इंतहां क्या-क्या होगी कोई नहीं जान सकता. दर्द की इंतहां किस-किस तरफ जाएगी कोई नहीं जान सकता. मेरा दर्द भी यहां दोस्तों कुछ ऐसा ही था कि अचानक आई इस बला को कैसे लूं, कैसे समझूं समझ ही नहीं आया. बस टूट गई एक बार फिर…दुनिया से नाता तोड़ देने को दिल चाहा..और सबसे दूर हो गई उन पलों में. जैसे होश में ही नहीं थी उन दिनों…जैसे आज तंद्रा टूटी हो मेरी..सोचा क्यों मैं भी उन दर्द की मारी बेचारी औरतों की कहानी का हिस्सा बनूं…क्यों मैं सहानुभूति भरी नजरों का एक और मोहरा बनूं…नहीं मैं इस बेचारी भीड़ का हिस्सा नहीं बन सकती. बस आ गई एक बार फिर अपने दर्द को उन्मुक्त शब्दों में बहा देने को.
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