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मदहोश करने वाली हवाएं अपना दम-खम दिखा रही हैं. मस्ती का आलम चरम को छूने को है. दिल की उमंगें जवां होने लगी हैं और लगता है इस बार की होली कुछ खास होगी. दिल के तार छेंड़ कर जिस तरह महबूब महबूबा के रुख का इंतजार करता है कुछ वैसे ही इस बार हमें भी लग रहा है कि शायद कॉंटेस्ट के बहाने कुछ नए कदरदान मिल जाएं जो समझें हमारी भावनाओं को और कर दें “जां निसार”.
खैर होली की बात हो रही थी तो मैं कहना चाहुंगी कि जब मैं लखनऊ में थी तो वहॉ जमकर होली खेला करती थी. लोगों के अंदर होली के सप्ताह भर पहले से ही इतना उत्साह होता था कि पूरा शहर रंगीन नजर आने लगता था. अगर हम पुराने शहर यानि अमीनाबाद या चौक के आसपास चले जाते तो बिना भीगे वापसी मुमकिन नहीं थी.
गुझिए की महक लखनऊ की हर गली में आने लगती थी और लोग सब कुछ किनारे कर होली की रंगीनियत में डूबते- उतराते नजर आते थे. हॉ, सबसे बड़ी बात जिसे हम आज भी उसी शिद्दत से याद करते हैं वह है होली की मस्ती का खुमार सभी संप्रदायों में बराबर का होता था और मुसलिम भी उसी जोशोखरोश से होली की मस्ती में झूमते थे जितनी मस्ती में हिन्दू.
यकीनन साम्प्रदायिक सौहार्द्र का ज्वलंत उदाहरण हमने खुद अपनी आंखों से देखा है और आज भी यही ख्वाहिश है कि सारे त्यौहार उसी रीति से मनाए जाने चाहिए.
लखनऊ की एक सबसे खास बात इस त्यौहार में चार चान्द लगा देती थी वह थी उसकी तहजीबी जमीन. वहॉ के पुराने वाशिन्दे इस तहजीब में रचे बसे होते हैं और किसी भी उत्सव में वे रवायतें अपना अलग ही नजारा पेश करती हैं.
कई बरस हो चुके मुझे लखनऊ से दूर हुए. अब तो कभी-कभी ही जाना होता है लेकिन बदलते लखनऊ की बात जमती नहीं और कहीं ना कहीं एक टीस सी पैदा करती है. एक ऐसी टीस जो अपने खोए लखनऊ की याद ताज़ा करती है. अब तो इंतजार है कि शायद कभी किस्मत हो और फिर से वही मौज-मजे व बेफिक्र मस्ती का सफर शुरू हो जाए.
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