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खुशियाँ जो कभी ना मिल सकीं

अकेली जिंदगी की दास्तां
अकेली जिंदगी की दास्तां
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बाल मन कितना भोला और मासूम होता है इसे मैं अच्छी तरह समझ गयी हूं. बड़े-बड़े ख्वाब देखे, सपनों की उड़ान भरी, दुनियां जीत लेने के संकल्प और जिन्दगी में केवल खुशियां ही रहेंगी इसका भ्रम. ………….!


लेकिन,  सच का सामना, यथार्थ की टकराहट और समाज के चक्रव्यूह से जब पाला पड़ा तो फिर सारे भ्रम चकनाचूर. टीस सी उठती है जेहन में कि आखिर क्यूं हम बच्चे नहीं रहे………. !


जब कोई रोक-टोक नहीं होती थी, वो प्यार-दुलार, मान-मनुहार, रूठना-मनाना और फिर मांग पूरी होनी ही थी. हालांकि मम्मी थोड़ी कड़ाई करती थीं लेकिन पापा  ठहरे आखिरकार बेटी पर जान छिड़कने वाले पापा. उन्हें तो बेटी की जिद पूरी करनी ही थी. तो फिर सारी मांगें मान ही ली जाती थीं.


लेकिन अब जबकि मैं बड़ी हो गयी और अपनी सारी इच्छाएं खुद ही पूरी कर सकती हूं तो फिर एक कमी हमेशा क्यूं बनी रहती है. क्यूं लगता है कि काश मैं वही छोटी सी बच्ची होती जो जिद करके अपनी बातें, अपनी हर इच्छा पूरी करवाती थी.


शायद यही इंसानी कमजोरी है कि जो मिलता है उसे हम कम समझते हैं और जो नहीं होता उसके पाने की चाहत बनी रहती है…………….यानि बीते की याद, सुखद भविष्य की चाह और वर्तमान की उपेक्षा.

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