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गत कई शुरुआती ब्लॉग पोस्टों के दौरान मैं बहुत से लोगों के लिए निंदा का पात्र बन गयी जबकि कुछ लोगों ने मेरी भावनाओं का सम्मान भी किया. जिन लोगों को मेरी बातें अच्छी लगीं उन्होंने सकारण प्रत्युत्तर भी पेश किया. जबकि नाराज लोगों ने अपनी कटुता साफ-साफ व्यक्त की जिसकी मैं कायल हो गयी.
वाकई मेरे लिए अपने पिछले बुरे अनुभवों के कारण पुरुषों के प्रति वितृष्णा भर गयी है. जिससे मैं मुक्त होने की लाख कोशिशों के बावजूद पीछा नहीं छुड़ा पाती हूं और बार-बार वही अनुभव मेरे दिलों-दिमाग पर हावी हो जाते हैं. कई बार सोचती हूं कि शायद कोई तो रास्ता होगा इससे छुटकारा पाने का लेकिन हर बार वही असफलता और फिर कोई रास्ता नहीं बचता सिवाय इसके कि मैं मान ही लूं कि दुनियां पुरुषों की है, राज मर्दों का है और शायद मर्दानगी का मतलब ही पशुवत आचरण है.
अभी मैं कनाट प्लेस में एक रेस्टोरेंट में बैठी थी. बस थोड़ा सा कुछ भी हल्का-फुल्का खाने का मन था. तभी मेरे सामने वाली सीट पर जिस पर दो लोगों के बैठने की जगह थी वहॉ दो बड़े ही शरीफ से दिखने वाले लोग आके बैठ गए. मैं सोच भी नहीं सकती थी कि वे कोई गलत हरकत करेंगे. आप को जान के अजीब लगेगा कि उनमें से एक ने बहुत तेजी से मुझे इशारा किया जैसे मैं कोई कॉलगर्ल हूं. दूसरा धीरे से बोलता है कि साथ चलो तीनों को मजा आएगा साथ में काफी पैसा भी मिलेगा.
कितना अप्रत्याशित हादसा था ये जिसने मुझे मर्दों की दुनियां के प्रति जारी मेरी घृणा को दुबारा मजबूत बना दिया. मैं अवाक थी और जल्द से जल्द वहॉ से बाहर आ गयी. आखिर क्यूं और कब तक चलता रहेगा ये सेक्स के लिए मर्दों का पागलपन. क्यूं बाहर निकली कोई लड़की उन्हें केवल हवस पूरा करने का जरिया लगती है. स्त्री की अस्मिता कितनी आसानी से खंडित हो सकती है और उसे चीरफाड़ कर अपनी भूख शांत करने में माहिर मर्दों की जमात कितनी वीभत्स लगती है.
क्या इस वाकये के बाद भी आप लोग सिर्फ मुझे दोषी ठहराएंगे या देंगे अपनी राय कि आखिर मर्दों की दुनियां क्यूं है इतनी हवस की भूखी. मेरी नजर में तो फिर मैं उसी दोराहे पर खड़ी हो गयी हूं जहॉ कुछ महीने पहले थी.
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