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ये दोगलापन है इंसान का

अकेली जिंदगी की दास्तां
अकेली जिंदगी की दास्तां
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मुझे लगता है कि धर्म सारी समस्याओं की जड़ है. दुनियां में अब तक के अधिकांश फसाद, आपसी वैमनस्य जितना धर्म के कारण हुए उतना शायद किसी और कारण से नहीं. वर्चस्व की लड़ाई का सबसे खतरनाक रुख साम्प्रदायिक दंगों में सामने आता है. लोग सबसे अधिक पशुवत और सबसे ज्यादा अधार्मिक धर्म को मानने के दौरान ही होते हैं.


इस्लाम और ईसाइयत तो शुरू से तलवार के बल पर ही अपना फैलाव करते रहे हैं. सारे दंगों और फसाद की जड़ ज्यादातर ये ही हैं. कभी भी जरा किसी मुस्लिम से आप धर्म के मसले पे बात कर के देखिए आप पाएंगे कि इसी एक मुद्दे को वो सभी दुनियावी मामलों में ले के आ जाते हैं. जरा सी बात पे मरने मारने को तैयार जैसे धर्म ही सबसे जरूरी चीज है जीने के लिए. शायद ये उनकी मूर्खता का परिणाम है कि वो ऐसा कर जाते हैं इसलिए उन पर तरस ही आ सकता है ना कि कोई क्रोध.


ईसाइयत ने अपने फैलाव का एक नया रास्ता खोज निकाला वह है उनका मिशनरी संगठन. लोगों को लालच दे के, उन्हें सहायता का वादा देकर ईसाइयत अपनाने को मजबूर करना और फिर जैसे कुत्तों को रोटी डाली जाती है वैसे ही चन्द सिक्के व सुविधाएं देकर उनका धर्म परिवर्तन करना.


आजकल हिंदू धर्म भी एक तरह की कट्टर विचारधारा की चपेट में आ चुका है. मूल रूप से अपने सहिष्णु स्वभाव के विपरीत हिंदू धर्म तमाम हिंसक लोगों का बोझ ढो रहा है. राजनीति इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार है हालांकि हिंदू धर्म को मानने वाले अधिकांश आज भी उदार और सहिष्णु हैं शायद इसका सबसे बड़ा उदाहरण संविधान में धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था का शामिल होना ही माना जाना चाहिए.


धर्म का प्रसार करना अपने आप में सबसे बड़ा कारोबार है. पूरी दुनियां में एक धर्म विशेष की स्थापना और प्रसार रणनीतिक रूप से सही मानकर किया जाता है. हिंसा को बेचने वाला, हिंसा का व्यापार करने वाला व्यापारी सबसे अधिक धार्मिक होता है. अनेक तरह के जटिल कर्मकांडों का व्यवहार यही धार्मिक व्यापारी करते है. मंदिर-मस्जिद के नाम पे झगड़े चलते रहें इसमें फायदा इसी वर्ग को है.


इंसान के जीने के ढंग पे कंट्रोल कर के अपनी तानाशाही को धर्म के नाम पे बेचने वालों तत्वों से दुनियां को हमेशा खतरा रहा है. पूरी सृष्टि धर्म के नाम पे होने वाले अत्याचारों से भरी पड़ी है. पूरी तरह से स्वार्थी और हमेशा एक खास तरह के उद्देश्यों से लिप्त अत्याचारी और छुद्र मानसिकता से ग्रस्त लोगों का अभिशाप पूरी मानवता पर भारी पड़ता रहा है. और यही तत्व अपने आप को सबसे बड़ा धार्मिक सिद्ध भी करता है.


ये दोगलापन है इंसान का. व्यवस्था से ज्यादा महत्व मनुष्य़ और मनुष्यता को देना चाहिए लेकिन होता उल्टा है. यहॉ महत्व व्यवस्था का है और मनुष्य केवल साधन. क्या आप इन बातों से इत्तेफाक रखते हैं अपना जवाब, अपना मंतव्य जरूर जाहिर कीजिएगा.

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