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अभी मैं अपने पिछले ब्लॉग में अपनी आपबीती लिख रही थी जिस पर आप सभी का बेहद सपोर्ट मिला जिसके लिए मैं बेहद आभारी हूं. आज कुछ अच्छा नहीं लग रहा था तो सोचा कि अपनी बातें तो पूरी कर ही लूं लेकिन फिर दिल ने कहा कि आज अपने रोने से कुछ हट के लिखूं नहीं तो आप सब बोर हो जाएंगे. इसलिए आज अपनी कुछ यात्राओं के दौरान हुए अनुभवों पर आधारित सच आपके सामने लाना चाहती हूं.
कठिन है ये जानना कि लोग आखिर क्यूं बिना किसी फायदे के झूठ बोलते हैं. कई बार तो ऐसी बात पे झूठ निकलता है मुख से कि अचरज होने लगती है. आप कहीं खड़े हो और मोबाइल से बात कर रहे हों उस समय शायद आप सबसे ज्यादा झूठ बोलते हैं. अनायास, बिना किसी स्वार्थ के जैसे इससे बड़ी और अच्छी बात दूसरी कोई और हो ही ना.
सच में मैं उस समय चकित रह गयी जबकि मेरी एक फ्रेंड ने मोबाइल से बात करते-करते एक ऐसा झूठ बोला जिससे उसका कुछ भी बनना-बिगड़ना नहीं था. एक ऐसा झूठ जिस पर विश्वास आसानी से हो जाए पर जिसका कोई अर्थ ना हो. उसका कहना था कि उसे कल ही ऊटी जाना है. वो जिससे बात कर रही थी उसने उसे यात्रा की शुभकामनाएं भी दे दी. जबकि वाकई ऐसा कुछ भी नहीं था. उसे कहीं भी नहीं जाना था.
एक ऐसा ही मजेदार वाकया तब पेश आया जबकि मैं कुल्लू गयी थी घूमने और वहॉ एक रेस्टोरेंट में ठहरी. वहॉ एक कपल मौजूद था काउंटर पे और आपस में बात कर रहा था. तभी कपल में से लड़की के मोबाइल फोन की घंटी बजी. उसकी मॉम का फोन था. लड़की बोली कि दिल्ली आए हैं घूमने और यहॉ से कुल्लू-मनाली जाएंगे. मैं सोचने लगी कि क्या ये झूठ जरूरी था. क्या बिना इस झूठ के काम नहीं चल सकता था.
मुझे लगा कि शायद हम सभी अभ्यस्त हो चुके हैं इस तरह की घटनाओं के तभी ऐसी घटनाएं मन पे कोई असर नहीं डालतीं. हमें इस बात का भान भी नहीं होता कि कब मुंह से झूठ निकलता है और कब हम उसे स्वीकार कर लेते हैं. बढ़ते अर्बनाइजेशन और मेट्रोज की चकाचौंध ने सामाजिक जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है और रिजल्ट काफी बुरा रहा. सिकुड़ते और मरते संबंधों ने आम आदमी को अजीब से अकेलेपन का शिकार बना दिया है. ये सब देख के दिल कहता है कि अनीता तुम्हीं सही हो कम से कम तुम झूठ तो नहीं बोलती. कम से कम जो भी दिल में होता है उसे बेबाकी से सबके सामने कहने की हिम्मत तो रखती हो भले ही कई लोग इसके लिए तुम्हें बुरा कहते हों.
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