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कहॉ गयी वो चुलबुली लड़की

अकेली जिंदगी की दास्तां
अकेली जिंदगी की दास्तां
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पापा के कंधों पे उचकती हुई छोटी लड़की जिसे दुनियां को अपने मुट्ठी में कर लेने की चाहत थी, जिसको मॉ का आंचल बहुत प्यारा था और करती थी अठखेलियां. इंतजार पापा के ऑफिस से वापस आने का और जब उठा लेते पापा अपने कांधों पे तो लगता जैसे जग जीत लिया.


क्या दिन थे वे जब थी बेफिक्री और जीवन में चुलबुलापन. चंचलता और चपलता से भरी-पूरी जिंदगी जिसमें हर ओर थीं सिर्फ खुशियां. भैया का डर दिल पे हमेशा बना रहा क्यूंकि एक वही तो थे जो कभी भी चोटी पकड़ के झटक देते और कहते बंद कर अपनी शरारत. मैं छुप-छुप के भैया के घर से बाहर जाने का इंतजार करती और जब ऐसा होता तो फिर से दुनियां अपनी होती.


लखनऊ कोई बहुत छोटा तब भी नहीं था फिर भी लोग खुशमिजाज थे और चाहते थे कि मिलना-मिलाना जारी रहे. कोई भी अवसर होता खुशियों का लोग मिल के उसे मनाना चाहते थे. सुरक्षा का अहसास हमेशा बना रहा और ये महसूस ही नहीं हुआ कि ऐसे भी दिन आएंगे जबकि कोई नहीं होगा जिस पे मैं अधिकार जता सकूं………कह सकूं अपनी बातें कि मैं भी लड़की हूं जीती जागती हाड़ मांस की बनी हुई…….मुझे भी दर्द होता है और मैं भी बांटना चाहती हूं किसी से.


जमाने का दस्तूर कितना संगदिल है जो तोड़ जाता है सारे अरमान और बना देता है एक सिरफिरी……..शायद जिससे बातें करना भी लोग गुनाह समझते हैं और जुड़ने की तो बात ही अलग है.


मैंने सोचा है कि अब तो मुझे तभी चैन मिलेगा जब मैं अपनी पिछली जिंदगी की दास्तां आप सभी को बता दुंगी. ये वो हकीकत है जिसमें किसी सीधी-सादी लड़की के बिलकुल बदल जाने और फिर जमाने भर से बदनामी मिलने की बात की गयी है. क्या इसमें सिर्फ मेरा दोष है या मर्द प्रधान समाज की निगाहों का इसका फैसला तो आप ही करेंगे.

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