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बस भी करो अब

अकेली जिंदगी की दास्तां
अकेली जिंदगी की दास्तां
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मैं कई दिन अपने इस प्यारे मंच पर अपनी अचानक आ गयी बीमारी की वजह से नहीं आ सकी. क्या करूं अकेली जो हूं. बस जब तक तबियत ठीक रहे कोई गम नही, कोई गिला नहीं लेकिन इस नामुराद बुखार ने हौसले ही पस्त कर दिए. हॉ, इस दरमियां दो नई चीजें देखने को मिलीं… पहली मैं सप्ताह की टॉप ब्लॉगर बन चुकी थी. और दूसरी लेकिन पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण बात ये देखने को मिली कि मेरे पिछले ब्लॉग “सभी मर्द एक जैसे आखिर क्यों” पर अधिकांश मर्दों की राय एक जैसी थी. लगभग सभी ने मुझे यही समझाने की चेष्टा की कि स्त्री की एक तय सीमा है और उसे उसी दायरे में मूव करना चाहिए, अपनी इच्छाएं स्त्री को त्यागनी होंगी तभी वह सुखी रह सकेगी. कुछ लोगों ने ये तक आरोप जड़ दिया कि मैं इस ब्लॉग मंच को बदनाम कर रही हूं और मेरे जैसे लोगों को ट्विटर, फेसबुक जैसी साइटों पर मनोरंजन करना चाहिए.


जब लोगों ने कहा कि स्त्री की एक हद है तो उनका क्या ये कर्तव्य नहीं बनता कि लगे हाथ ये भी बता दें कि आखिर ये हद निर्धारण किया किसने है?


मैं पूछती हूं मर्यादा, संस्कार और परंपरा की दुहाई दे दे कर नारी के व्यक्तित्व पर आघात लगाने से ही क्या मर्दों का पुरुषत्व कायम रहता है. अधिकांश मर्दों के एक जैसे उत्तर बस शब्द और लिखने के तरीके में फर्क नजर आया मुझे. किसी ने इतना सा सच कहने का साहस नहीं किया कि अनीता, हॉ हम जानते हैं कि हमारी नस्लें कायर हैं जो सच को स्वीकारने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हैं. शायद मुझे तसल्ली हो जाती कि चलो कम से कम इतना तो पुरुषत्व का लक्षण बाकी है सब कुछ नहीं चुक गया है. लेकिन हाय रे डर……………..


एक अकेली लड़की के दुखों को समझने और उसे दिलासा देने की अपेक्षा सारे मर्दों ने एकजुट होके समवेत स्वर में विरोध का रुख अख्तियार किया. यहॉ मैं चातक जी, राशिद जी और आलराउंडर जी को अलग करती हूं जिनके कमेंट वाकई मेरे प्रति सम्मान से नजर आए. मुझे ये शायद पहला अनुभव हुआ कि कुछ लोग(चातक जी) ऐसे हैं जिन्हें विरोध भी सलीके से करना आता है. हालांकि वे भी वैसी ही तीखी और तल्ख टिप्पणियां कर सकते थे लेकिन इन्होंने अपने पर कंट्रोल की कला सीख रखी है.


एक बिलकुल नई चीज जिसकी मुझे कतई उम्मीद नहीं थी वह ये देखने को मिली कि इस मंच पर मौजूद महिला ब्लॉगरों ने कन्नी काटना ज्यादा ठीक समझा. ये काफी दुर्भाग्य की बात है कि इंडिया में वीमेन अभी भी गुलामी को ही अपनी किस्मत समझती हैं. बस संजना जी को छोड़कर किसी अन्य महिला ब्लॉगर ने इसे अपनी लड़ाई मानने की नहीं सोची. ये तथ्य जाहिर करता है कि महिलाएं अभी भी उतनी ही नादान हैं जितनी शताब्दियों पहले थीं.


बहुत हो चुकीं सबकी शिकायतें अब ये सोच के लिखना बन्द कर रही हूं कि आप सभी अकेली नारी मन की व्यथा समझ पाएंगे…………. अपने अगले ब्लॉग में मैं अपने जीवन के बुरे अनुभवों को आप सब के सामने लेकर आउंगी.

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